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दीप्ति नवल ने नेक्स्ट डोर की छवि छोड़ बसाई किरदारों की नई दुनिया

दिल्ली की उस वक़्त की सादगी भरी ज़िंदगी …और उसमें सादगी भरी एक लड़की जो सेल्सगर्ल है और घर घर जाकर चमको नाम का वाशिंग पाउडर बेचती है- फ़िल्म चश्मे बद्दूर जब 1981 में रिलीज़ हुई तो दुनिया ने ठीक से दीप्ति नवल नाम की एक नई अभिनेत्री को जाना जो गर्ल नेक्सट डोर की छवि के साथ फ़िल्मों में आई लेकिन कथा, अंगूर, साथ-साथ, किसी से न कहना जैसी फ़िल्मों की इस अभिनेत्री ने जल्द ही गर्ल नेक्सट डोर वाली छवि छोड़ किरदारों की एक नई दुनिया बसाई।

कमला में वो भील समुदाय की एक ऐसी लड़की थी जिसे ख़रीद कर शहर लाया जाता है। नक्सल आंदलोन की पृष्ठभूमि में बनी अंधी गली (1984) में एक ऐसी लड़की जो अतीत से भाग रहे अपने पति की अंधी गली में आत्महत्या करने को मजबूर थी या एनएच-10 की अम्मा जी जो अपनी ही बेटी की ऑनर किलिंग करवाती है।

लेकिन फ़िल्मी दुनिया के इन किरदारों से दूर दीप्ति नवल ने अपनी ज़िंदगी पर एक किताब लिखी है- अ कंट्री कॉल्ड चाइल्डहुड। जैसे कि नाम से ज़ाहिर है ये किताब दीप्ति नवल के बचपन और युवा दिनों के बारे में हैं जो उन्होंने अमृतसर में बिताए। दिल्ली की जो छवि मन में दीप्ति नवल की चश्मे बद्दूर देखकर समाई हुई थी, अब दिल्ली वैसी तो नहीं रही लेकिन इसी शहर के एक ख़ूबसूरत इलाक़े में दीप्ति नवल से मुलक़ात हुई और उनकी किताब पर बातें हुईं। अपनी साड़ी को करीने से समेटती, चेहरे पर सौम्यता और दृढ़ता का भाव और कोमल आवाज़ लिए, दीप्ति ने बीबीसी से बात करते हुए अपने बचपन की कई सारी बातें और किस्से साझा किए-

आपने अपने फ़िल्मी सफ़र को छोड़ सिर्फ़ अपने बचपन के बारे में ही किताब क्यों लिखी ?

मुझे लगता है कि ज़िंदगी का सबसे यादगार और अहम पड़ाव बचपन है, हम सबको अपना बचपन प्यारा होता है. मुझे भी है. जब मैं अपने बारे में लिखने बैठी तो लगा कि यही एक चीज़ है जो साझा करने लायक है, बाकी सब तो वही बातें हैं कि मैंने ज़िंदगी में ये किया, यहां कॉलेज गई, ये फिल्म मिली.. ये बातें ज़्यादा अहमियत नहीं रखती। मुझे लगा कि बताने लायक चीज़ ज़िंदगी के शुरुआती 19 साल ही हैं।

अमृतसर में बड़े होते हुए बचपन में कब लगा कि फ़िल्मों में जाना है ?

ये वो दौर है जब फ़ेरीवाली लाउडस्पीकर पर फ़िल्मों की पब्लिसिटी करने आते थे। 1956 में मैंने पहली बार कोई फ़िल्म देखी- दुर्गेश नंदिनी। जब फ़िल्मों में काम करने का ख्याल आया तो उस वक्त मैं 8-9 साल की थी. मैं बड़े पर्दे पर फिल्में देखा करती थी तो मुझे लगता था कि कभी मुझे भी ऐसा ही काम करना है ।

मुझे लगा कि मैं पर्दे पर हूं और सब मुझे स्क्रीन पर देख रहे हैं। बाद के सालों में मुझे साफ़ हो गया कि यही मेरा शौक है। तब फ़िल्मों का बड़ा सामाजिक असर होता था। राज कपूर की फिल्मों से मैं काफी प्रभावित होती थी। इतनी छोटी उम्र में ये तो समझ नहीं आता था कि किन मुद्दों को उठाना चाह रहे हैं लेकिन ऐसा एहसास ज़रूर होता था कि राज कपूर अपनी फिल्मों में कुछ तो अहम बात कह रहे हैं। शुरू से ही मैं फ़िल्मों से प्रभावित थी। साधना, मीना कुमारी, देव आनंद, शम्मी कपूर सबकी फ़िल्में देखा करती थीं।

13 साल की उम्र में फ़िल्मों वाले कश्मीर जाने के लिए घर से भाग गई थीं आप?

फ़िल्मों का इतना असर था कि ‘फ़िल्मों वाला कश्मीर’ देखने के लिए कश्मीर जाने के घर तक छोड़ दिया था। इतना फितूर था कि कश्मीर में फ़िल्माए गए सारे गाने देख-देखकर लगता था कि कश्मीर रहने के लिए सही जगह है। कश्मीर जाना ज़रूरी है और यही सब सोचते-सोचते घर से अकेली निकल पड़ी। वहां पहुंच तो नहीं सकी और रात में ही पकड़ी गई।

पुलिसवालों ने पकड़कर मुझे परिवार के हवाले कर दिया। किताब में ये किस्सा लिखने से पहले मैंने कई बार सोचा कि क्या वाकई दुनिया को बताऊं कि मैं इतनी ज़्यादा बेवकूफ़ थी। पर आप इसे मासूमियत भी कह सकते हैं।

आपकी किताब में अमृतसर एक अहम किरदार की तरह बनकर सामने आता है. कितना बदला है आपका शहर?

मैं अमृतसर में पली बढ़ी हूँ लेकिन ये शहर काफी बदल गया है, ख़ासकर जलियांवाला बाग़। हम जलियांवाला बाग़ के किस्से सुनकर बड़े हुए हैं। अब इस इलाक़े की शक्ल सूरत बदल गई है। पर मुझे लगता है कि कि ऐसी जगहों को ब्यूटीफाई करने की बजाए उन्हें संरक्षित करके रखा जाना ज़्यादा ज़रूरी है।

एक कलाकार होने के नाते देश में ध्रुवीकरण के माहौल पर क्या सोचती हैं। आपकी फ़िल्म का एक सीन चर्चा में है। ऑल्ट न्यूज़ के सह संस्थापक पत्रकार मोहम्मद जु़बैर ने आपकी फ़िल्म ‘किसी से ना कहना’ के एक सीन का स्क्रीनशॉट ट्विटर पर डाला था।

इस विवाद का संदर्भ तो मुझे नहीं पता लेकिन फ़िल्म में बड़े ही मासूमी से परिवार वालों से बचने के लिए ”हनीमून” का नाम बदल दिया गया था। उस वक्त फ़िल्म में एक जोक के तौर पर दिखाया गया था लेकिन अब इसे बहुत ऑफेंसिव चीज़ की तरह दिखाया जा रहा है। मुझे पता नहीं है कि करने वाले ने किस मकसद से किया है, क्या उसके पीछे भी कोई चीज़े चल रही थीं।

आपने किताब में अमृतसर, 1965 की भारत-पाक जंग, लाहौर का बार-बार ज़िक्र किया है. अब सरहदें बंट गईं हैं और कलाकार भी अलग-अलग बंट गए हैं, इस पर आपकी क्या राय है?

मैंने 1965 की लड़ाई देखी है। तब हम बच्चे थे। समझ नहीं थी। जब जंग चल रही थी तो ये सब कुछ बड़ा रोमांचक लगता था। हम बच्चे छत पर भागते थे देखने के लिए। हमें मज़ा आता था। जब जंग थमी तो पिताजी सरहदी गाँव में लेकर गए। वहाँ जो तबाही का मंज़र देखा तो जैसे में बचपन में एक ही दिन में बड़ी हो गई। जब मैं अमरीका रहने गई तो मेरी एक दोस्त थी लाहौर से। हम दोनों जंग के अनुभव साझा करते थे कि कैसे कुछ ही किलोमीटर दूर रहते हुए हमारे तजुर्बे एक जैसे थे। मैं तो कहती हूं कि दीवारें होनी ही नहीं चाहिए, अंग्रेज़ बांटकर चले गए, हम ना माने उन्हें, हटा दो उन दीवारों को, उन कंटीली तारों को, सरहदों को। दोनों तरफ़ बहुत कुछ सहा गया, पर उसे हटा देना चाहिए। ऐसा भी दौर आ सकता है ना, सोचने में आसान लगता है लेकिन इतना आसान नहीं है। आज नहीं पर शायद फिर कभी ऐसा हो पाए।

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